भारतीय नारी कितनी पूजनीय है?
सांस्कृतिक परिवर्तन- युग का अंतर:
“भारतीय नारी” आज के परिपेक्ष्य में उतने सांस्कृतिक परिवेश में सिमटी नहीं है, जितना की पिछली पीढियों में रही है। यह कोई समस्या नहीं है, ना ही इसमें कोई सामाजिक संशोधन है। यह तो युग का अंतर है।
जो समस्याएं भारतीय समाज में आज नारी झेल रही है वह तो उसने युगांतर से झेली हैं। नारी उत्पीड़न का मात्र ये संशय नहीं कि नारी का शोषण हो रहा है। इसके साथ ही आज उत्पीड़न के स्थान पर यदि” संकीर्णन्” का उपयोग करे तो अधिक उपयुक्त होगा। जब तक नारी अपनी संकीर्ण विचारधारा से उठकर अपनी क्षमता का परिपूर्णता से उपयोग नहीं करेगी तब तक उसका उत्पीडन होता रहेगा।
आधुनिक भारतीय नारी: समर्थ, सुरक्षित और स्वतंत्र
देवी- देवता आदर्श के स्वरूप है। सीता, सावित्री, लक्ष्मी बाई, रजिया सुल्ताना,इन्दिरा गाँधी आदि अनेक उदाहरण ऐसे हैं जिनसे यह पता चलता है कि नारी हो या पुरुष यदि वह अपनी क्षमता के अनुसार जीवन के श्रेष्ठतम शिखर पर पहुँच जाता है तो फिर पुरुष स्त्री में कोई भेद नजर नहीं आता। आज यदि अशिक्षा, कायरता, सामाजिक अंधविश्वास और किंकर्तव्यविमूढ़ता को नारी त्यागे तो वो भी एक उदाहरण बन सकती है।
नारी का कोई शोषण नहीं कर सकता क्योंकि वह भी सामाजिक प्रणाली का मूलभूत अंग है। परन्तु शोषण हमेशा किसी दबे हुए कमजोर और असफल व्यक्ति का होता है। चाहे वो पुरुष हो या नारी। अतःक्योंकि अधिकांश स्त्रियाँ अभी भी जागरूक नहीं हैं उसके सामाजिक उत्थान में अभी भी पर्याप्त क्रियान्वयन नहीं हुआ है इसलिए आज भी प्रायः उसको अवशोषित व्यवहार सहना पड़ता है। नारी हमेशा से पूजनीय रही है। माँ, बहन, पत्नी, बेटी और अच्छे मित्र के रूप में भी नारी ने अपनी क्रियाशील परिपक्वता का परिचय दिया है। इसलिए वह पूजनीय रही है और सर्वथा रहेगी। किंतु, इसके लिए उसको अपने आपको सिद्ध करना होगा।
स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान:
आज किसी भी क्षेत्र में देखें भारतीय नारी प्रशासनिक वर्ग से चिकित्सक वर्ग तक अपना स्थान बना चुकी है। इसलिए जिसप्रकार कोई प्राणी जब तक अपने आपको सिद्ध नहीं कर देता वो हमेशा कम क्षमता का ही आंका जाता है। उसी प्रकार नारी अच्छी सिद्धहस्तता को प्रदर्शित कर अपने ऊपर लग रहे आक्षेपों को पूर्ण विराम लगा सकती है।
पारिवारिक पृष्ठभूमि :
यदि हम पारिवारिक पृष्ठभूमि की ओर देखें तो अधिकांश पति पत्नी में तनाव आपसी सामंजस्य की कमी के कारण होता है। यदि स्त्री का गौरव और पुरुष का अहंकार एक दूसरे के पूरक हो जाए तो निश्चित ही पारिवारिक संबंध सुधर जायेगा। इसलिए पति पत्नी के मतभेदों मैं कभी भी पुरुष और स्त्री वर्ग को प्रधानता न देकर मात्र जीवन साथी का भाव रहे तो एक सवस्थ परंपरा का प्रादुर्भाव हो सकता है। पाश्चात्य देशों में भी यह विचारधारा ज़ोर पकड़ रही है। अतः आज जितनी भी नारी उत्थान संस्थाएँ कार्य कर रही है वे नारी को पुरुष का प्रतिद्वंद्वी बनाकर उसको अपना स्थान पाने की दिशा देकर पुरुषत्व और नारित्व में दूरी बढ़ा रही है।
समाज में बदलाव:
आवश्यकता है नारी को अपने जीवन को विकसित करने की। कलाओं का परिचय कराना न की, उसको किसी सामाजिक परिवर्तन की आशा में आंदोलनरत होने की सीख देना, क्योंकि परिवर्तन तो स्वयं आता है।
नारी हमेशा पूजित रही है और रहेगी। कहा भी गया है-
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता”
अर्थात जहां नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है वहां देवताओं का वास होता है।
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लेखिका:
मिसेज मधु पाराशर,
पूर्व मात्र शक्ति संयोजिका
अवध प्रांत